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ज़मीनी सेंटीमेंट्स को समझती है बीजेपी, कांग्रेस की समझ से दूर हैं ज़मीनी सेंटीमेंट्स


बीजेपी ज़मीनी सेंटीमेंट्स को समझती है. वहाँ विदेशी यूनिवर्सिटियों में पढ़कर आए पैटी बुर्जुआ एक्टिविस्टों के बजाय ज़मीनी केडर की बात सुनी जाती है. फीडबैक देने वाले लोगों को कुछ पता होता है.

कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देना यही से निकलकर आया है. बाक़ी नीतीश और जयंत के साथ अलायन्स से ये हुआ हो, मुझे नहीं लगता.

कांग्रेस में ज़मीनी हक़ीक़त और लोगों के सेंटीमेंट्स को पकड़ने वाले फीडबैक सिस्टम की भयंकर कमी है.

ख़ाली बढ़िया आइडियोलॉजी होने से काम नहीं चलता. उसको पसारने के लिए एक्ट में भी शामिल होना पड़ता है.

एनडीए अलायन्स में कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने ताउम्र जॉइंट फ्रंट चलाए हैं इसलिए उनको घटक दलों को जोड़कर रखना आता है.

इंडिया अलायन्स के पास कुछ लोग ज़रूर हैं जिनको जॉइंट फ्रंट्स का ज्ञान है पर वे बूढ़े भी हो गये हैं. कांग्रेसी नवयुवकों को जॉइंट फ्रंट्स की राजनीति का एबीसी भी नहीं पता. इस देश में सेक्युलर वोट बैंक है और रहेगा. आप उसका विस्तार भी कर सकते हैं.

सारा खेल जॉइंट फ्रंट चलाने और बढ़िया प्रबंधन का है, जिसमें इंडिया अलायन्स फेल हो रहा है. राजस्थान चुनाव में जॉइंट फ्रंट बनवाने में जुटे लोगों को बहुत नज़दीक से देखा था. भारत आदिवासी पार्टी और सीपीएम के लोग चक्कर काटते रहे पर उनकी बात तक सुनने वाला कांग्रेस के पास नहीं था, नतीजा – चुनाव में बीस सीटों का नुक़सान.

ख़ैर, जॉइंट फ्रंट वारियर्स पर मैं इतना ज्ञान क्यों दे रहा. इसको समझने के लिए भी पोलिटिकल एक्ट की एक बेसिक समझ चाहिए. जॉइंट फ्रंट्स के लिये बिग ब्रदर एटीट्यूड ख़तरनाक होता है. नये जमाने के नेताओं को सब बना बनाया मिला है, उन्होंने ग्राउंड पर मेहनत करके एक एक हाथ जोड़कर ख़ुद बनाया नहीं, इसलिए अगर कोई नाराज़गी आती है तो उसका हल निकालने की बजाय उससे मुँह फेर मुँह सुजाकर बैठ जाते हैं. आप नेता हैं आपको सबको स्पेस देना पड़ेगा. लेनिन तो एक नाराज़ व्यक्ति को समझाने के लिए रात भर उसको मनाने का मादा रखते थे.

सांप्रदायिकता और कॉर्परेट का क़ब्ज़ा दो ऐसे नुक़्ते हैं जिसके ख़िलाफ़ लड़ने वालों को हमेशा बेस मिल जाएगा, लेकिन अगर वो ख़ुद ही नालायकियाँ करते फिरेंगे तो उनकी दाल नहीं गलेगी.

कुछ भी अपने आप नहीं होता. सब कुछ प्लैंड होता है और ऑर्गनाइज्ड पॉलिटिक्स प्लैन करके करती है. एक्ट में इन्वॉल्व होकर करती है. इन बेसिक बातों के लिए भी अगर मत्था खपायी करनी पड़ेगी तो चल लिया सिस्टम. सांप्रदायिकता का दुश्चक्र ऐसे नहीं टूटेगा.

बहुत लंबा नहीं लिखना चाहता. बस इतना लिखूँगा कि इसी चुनाव में ही सांप्रदायिक रथ को पंचर किया जा सकता था, पर जॉइंट फ्रंट्स न चला पाने और बेसिक पोलिटिकल एक्ट न कर पाने की नालायकियाँ कह रही हैं, “दिल्ली अभी दूर है.”

जो लंबे यात्री होते हैं वे कुछ कदम चलते हैं फिर उस सफ़र से हासिल चीज़ों को इक्कठा कर आगे बढ़ते हैं. वे बिन देखे बिन समेटे सिर्फ़ चलते नहीं रह सकते.

(नोट : यह पोस्ट पत्रकार मंदिप पुनिया द्वारा लिखी है। इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)


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