हिंदू धर्म में सभी पूजा पाठ में शंख का एक विशेष स्थान है। भारतीय संस्कृति में शंख को सुख-समृद्धि और शांति के लिए शुभ शुरुआत माना जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि भगवान शिव की पूजा में शंख का प्रयोग वर्जित माना जाता है। इसलिए महादेव की पूजा-अर्चना में शंख नहीं बजाया जाता है। भगवान शिव की पूजा में शंख न बजाने के पीछे एक पौराणिक कथा है।
कथा के अनुसार, दैत्यराज दंभ जिनकी कोई संतान नहीं थी। उसने संतान प्राप्ति के लिए दैत्यराज दंभ ने भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु ने उसको दर्शन दिये। भगवान विष्णु ने दैत्यराज से वर मांगने के लिए कहा, जिस पर दैत्यराज ने उनसे महापराक्रमी पुत्र का वर मांगा। विष्णु जी ने उसके मागे गए वरदान को पूरा किया और दैत्यराज दंभ के यहां पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम शंखचूड़ रखा गया। शंखचूड़ जब थोड़ा बड़ा हुआ तो पुष्कर में ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए उसने कठोर तप किया। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे वरदान मांगने के लिए कहा। शंखचूड ने ब्रह्माजी से देवताओं से कभी न हारने का वर मांगा। ब्रह्माजी ने उसकी इच्छा पूर्ण करते हुए शंखचूड श्रीकृष्ण कवच और धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा देकर चले गए। इसके बाद तुलसी और शंखचूड का विवाह हुआ।
वरदान मिलने के बाद शंखचूड में अहंकार पैदा हो गया। वरदान के बाद वह किसी भी देवता से नहीं हार सकता था। इसलिए उसने तीनों लोकों पर अपना कब्जा करना शुरू कर दिया। शंखचूड़ के हमलों से हार कर सारे देवता भगवान विष्णु के पास गए। लेकिन, भगवान विष्णु ने ही दंभ को पुत्रवर का वरदान दिया था, इसलिए उन्होंने महादेव की आराधना की।
भगवान विष्णु के कहने पर महादेव शंखचूड का अंत करने चल पड़े। लेकिन, श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध नहीं कर पा रहे थे, जिसके बाद भगवान विष्णु ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और शंखचूड से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया। फिर शंखचूड़ का रूप धारण करके तुलसी के शील का हरण कर लिया। इसके बाद महादेव ने अपने विजय नामक त्रिशूल से शंखचूड का अंत कर दिया। शंखचूड़ की हड्डियों से शंख का जन्म हुआ, जिस शंख का जल भगवान शिव के अलावा सारे देवताओं के लिए उत्तम माना जाता है। इसलिए महादेव की पूजा में कभी भी शंख नहीं बजाया जाता है।