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Modi 3.0 का पूरा होगा कार्यकाल या बीच में ही टूट जाएगा NDA गठबंधन ?

दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने और चलाने वाले देश के प्रधानमंत्री मोदी इस बार NDA की बैसाखी के सहारे अपनी तीसरी सरकार चलाने को मजबूर हैं। बैसाखी भी ऐसी है, जिसने अभी से सरकार को धमकाना और चेतावनी देना शुरू कर दिया है। ऐसे हालात में राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज हो गई है कि क्या देश में मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं बनेंगी।
NDA alliance | PM Modi |Shreshth uttar pradesh |

देश में चुनाव का दौर तो गुज़र गया है, लेकिन चुनावी सरगर्मियां अब भी जारी हैं उसकी वजह है चुनावी नतीजे। क्योंकि इस बार के नतीजे ही कुछ ऐसे आए हैं कि हर कोई हैरान परेशान है। दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने और चलाने वाले देश के प्रधानमंत्री मोदी इस बार NDA की बैसाखी के सहारे अपनी तीसरी सरकार चलाने को मजबूर हैं। बैसाखी भी ऐसी है, जिसने अभी से सरकार को धमकाना और चेतावनी देना शुरू कर दिया है। ऐसे हालात में राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज हो गई है कि क्या देश में मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं बनेंगी। या फिर अटल जी की राह पर चलते हुए पीएम मोदी जैसे तैसे अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर लेंगे।

9 जून को तीसरी बार नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ले ली है, लेकिन इस बार उनकी जिंदगी में पहली बार वो धर्म संकट खड़ा हो गया है, जिससे पार पा पाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। चाहे ना चाहे अब बीजेपी को एनडीए घटकों को साथ लेकर चलना ही होगा। देश के कुछ पॉलीटिकल एक्सपर्ट्स की मानें तो ये बदलाव बीजेपी की विचारधारा से जुड़ी योजनाओं पर असर डाल सकता है। बीजेपी को ना चाहते हुए भी कुछ मुद्दों पर जवाब देने पड़ सकते हैं जो उसके डीएनए में नहीं है। ऐसे में पांच साल का कार्यकाल पूरा होने की संभावनाएं काफी कम लग रही हैं और मध्यावधि चुनाव होने की संभावनाएं ज्यादा बढ़ गई हैं। राजनीतिक विश्लेषक इस बात पर रिसर्च कर रहे हैं कि आखिर इस चुनाव में बीजेपी से क्या गलती हुई है। और क्यों लोकसभा चुनाव में बीजेपी का हिंदुत्व फैक्टर नहीं चला। इसके आलावा कैसे बीजेपी के घटक दल TDP, शिवसेना और जेडीयू उसका खेल बिगाड़ सकते हैं या फिर उसकी किन नीति और प्रस्तावों का विरोध कर सकते हैं।

दरअसल, इस बार के लोकसभा चुनाव 7 चरणों हुए ये तो सब जानते हैं। मोदी और बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए बड़े-बड़े कैंपेन भी चलाए। चुनाव की शुरुआत में ही ‘मोदी की गारंटी’ और ‘मोदी फिर आएंगे’ जैसे वादे किए गए। मोदी की ये ज़बरदस्त तैयारी देखते हुए चुनाव के दूसरे और तीसरे चरण में विपक्ष ने अपनी रणनीति बदली। उन्होंने मोदी पर हमला करना बंद कर दिया और बुनियादी मुद्दे महंगाई और बेरोज़गारी की बात करने लगे। अर्थव्यवस्था की समस्याओं को पुरज़ोर तरीके से उठाने लगे। इससे बीजेपी को लगा कि इंडी गठबंधन से मुकाबला करना मुश्किल होगा तो उन्होने पूरे माहौल को सांस्कृतिक पहचान के मुद्दों पर ले जाने की कोशिश की। इस तरह बीजेपी के प्रचार अभियान नकारात्मक होते गए या फिर पूरी तरह हिंदुत्व केंद्रित हो गए।

बीजेपी हमेशा से ही हिंदुत्व की राजनीति करती आई है। लिहाज़ा इस बार उसे इस पर जोर देने की जरूरत ही नहीं थी। चुनाव से पहले के कराए गए सर्वे तक में पता चल गया था कि बीजेपी की ओर से बनवाए गए राम मंदिर से लोग खुश हैं। फिर भी मोदी सरकार वही राम मंदिर और हिंदू मुसलमान करती रही। विपक्ष के उठाए मुद्दों पर जवाब देने से बचती रही और बस यहीं पर चूक गई। इस बार के चुनाव में जो बड़ा उलटफेर हुआ है उससे इस तरह के भी सवाल उठाए जा रहे हैं की हमारे देश के मतदाताओं को समझना थोड़ा मुश्किल है।

दरअसल चुनाव के नतीजे बताने वाले exit polls और कई बार तो राजनीतिक दल भी अक्सर अपनी जीत को लेकर भविष्यवाणियां करनी शुरू कर देते हैं। बिना ये सोचे समझे कि वोटर क्या चाहता है, जबकि आज का वोटर काफी समझदार हो गए हैं। वो बहुत सी बातें अपने मन में ही रखते हैं और खुलकर नहीं बताते। इसी वजह से राजनीतिक पार्टियों के लिए जमीनी कार्यकर्ताओं की राय लेना ज़रूरी हो जाता है। कोई भी नेता अकेले ये नहीं समझ सकता कि लोग क्या चाहते हैं या वे किस चीज को लेकर पॉज़िटिव या नेगेटिव हैं। ये जमीनी कार्यकर्ता ही होते हैं जो नीचे से जनता की राय लेकर नेताओं तक पहुंचाते हैं। तब कहीं जाकर नेता जनता की भावनाओं को सही तरीके से समझ पाते हैं और उसका फायदा उठा पाते हैं।

नेता अक्सर जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति जैसे बड़े मुद्दों के बारे में सोचते हैं, लेकिन वोटर इन सबके अलावा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में भी सोचता है। वोट देते वक्त वोटर्स पार्टियों के वादों और जीतने के बाद बनने वाले समीकरणों को भी ध्यान में रखते हैं, लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम में लगता है बीजेपी को ही ठीक से फीडबैक नहीं मिला। इसकी क्या वजह हो सकती हैं। पहली वजह – हो सकता है कि पार्टी ने जमीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर सिर्फ ऊपर के बड़े नेताओं पर भरोसा किया हो। दूसरी वजह – पार्टी जानती थी कि जनता क्या चाहती है इसलिए उन्होने ज़मीन से मिली जानकारियों को गंभीरता से ही ना लिया हो। तीसरी वजह – अक्सर जब कोई नेता लगातार जीतता है तो उसे लगता है कि वो जनता को अच्छे से समझता है, लेकिन ऐसा नहीं होता। दोनों के बीच दूरियां बढ़ चुकी होती हैं। चौथी वजह – शायद पार्टी अपने विचारों को लेकर इतनी ज्यादा ओवर कॉन्फिडेंट हो गई थी कि उसने जमीनी कार्यकर्ताओं से राय लेना ज़रूरी ही ना समझा हो।

अब बात करते हैं बीजेपी के सहयोगी दलों की जो कभी भी पासा पलट सकते हैं। ये तो हम सब जानते हैं कि मोदी ने हमेशा से अकेले ही काम किया है और अपनी ही चलाई है। सहयोगी दलों के साथ काम करने का उनको बिलकुल अनुभव नहीं है। उन्हे लगता है कि वो जानते हैं क्या सही है और क्या गलत। लिहाज़ा वो अपनी बात मनवाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। अब एक ऐसा नेता जो कभी समझौता करने का आदी नहीं रहा है, उसे समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस वक्त ये उनकी सबसे बड़ी परीक्षा होगी कि वो कैसे सहयोगी दलों के साथ समन्वय बिठा पाते हैं। अब बात उन मुद्दों की जिसे लेकर बीजेपी औऱ उसके सहयोगी दलों में तलवार खिंच सकती है।

इनमें सबसे पहला है हिंदुत्व- जिसे बीजेपी के गठबंधन सहयोगी सहज नहीं मानेंगे। वे हिंदू विरोधी नहीं हैं, लेकिन हिंदू होने और हिंदुत्व के समर्थक होने में अंतर है। ये सहयोगी बीजेपी के हिंदुत्व वाले एजेंडे को धीमा करने की कोशिश करेंगे।

दूसरा एक राष्ट्र, एक चुनाव- जहां मोदी सरकार पहले दिन से ही ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को देश में लागू करना चाहती है तो वहीं उसके कुछ सहयोगी दल इसके खिलाफ हैं। हालांकि चंद्रबाबू नायडू का रुख अनिश्चित है क्योंकि उनके राज्य में पहले से ही integrated election program का पालन किया जाता है, लेकिन नीतीश कुमार जब इंडी गठबंधन में थे को वो मोदी के इस फैसले के खिलाफ थे।

तीसरा– परिसीमन के मुद्दे पर नायडू और नीतीश कुमार के बीच सीधा टकराव हो सकता है उनके अलग-अलग क्षेत्रीय हितों का मतलब है कि वे अलग-अलग दृष्टिकोण पसंद करेंगे।

चौथा – जाति जनगणना इस बारे में नायडू शायद खुलकर विरोध न करें, लेकिन वे काफी असहज महसूस कर सकते हैं। ये आमतौर पर उस तरह की राजनीति नहीं है जिसका उन्होंने अभ्यास किया है। आसान भाषा में कहें तो इस तरह से बीजेपी वापस वाजपेयी युग में लौटती दिख रही है, जहां सत्ता में होने के बावजूद वे अपने वैचारिक एजेंडे को खुलकर आगे नहीं बढ़ा सकते। राजनीतिक जानकारों की मानें तो फिलहाल बीजेपी की अपने सहयोगी दलों पर मजबूत पकड़ है, लेकिन कम बहुमत को देखते हुए बदलाव आने की स्थिति से भी नकारा नहीं जा सकता।

अंत में बात विपक्षी दलों की जिनके लिए ये चुनाव संजीवनी बन गया है क्योंकि बीजेपी के खराब प्रदर्शन से विपक्षी दलों को नया जीवनदान तो ज़रूर मिला है लेकिन मौजूदा सरकार को हिला पाने या गिराने की सोच भी रखना उनके लिए खतरनाक हो सकता है। क्योंकि विपक्ष के मन में अब भी मोदी का डर तो ज़रूर होगा, जिसने कथित तौर पर सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए एक-एक कर विपक्षी नेताओं के खिलाफ बड़ी कार्रवाइयों को अंजाम दिया था। अगर विपक्ष ने फिर ऐसा कुछ करने की सोची तो सरकारी मशीनरी तैयार ही है, यहां ये भी समझना ज़रूरी है कि मोदी सरकार को हराने के लिए एकजुट हुए विपक्षी दलों का कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं है।

इन लोगों के मन में संविधान के प्रति सम्मान तब जागा जब मोदी ने इन्हे जेल में डालना शुरू किया। दस साल तक चुप रहने वाले विपक्षी दलों को लगा कि अकेले तो मोदी का सामना कर नहीं सकते। राजनीतिक दुकान समेट लेने से अच्छा है एकजुट हो जाएं और वही हुआ। मिलकर चुनाव तो लड़ लिया, लेकिन ये साथ कब तक रह पाएंगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। इतना तो तय है कि अगर मोदी सरकार अपनी बैसाखी साथ लेकर ना चली तो विपक्षी दल इस मौके का फायदा उठाने से बिलकुल नहीं चूकेंगे और फिर मध्यवधि चुनाव की बातों को भी नकारा नहीं जा सकता।

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