लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे जब से सामने आए हैं तब से मोदी सरकार के लिए कई मोर्चों पर परेशानी खड़ी हो गई है। एक तरफ इंडी गठबंधन चाहता है कि कैसे भी एनडीए के सहयोगी दलों को अपने पाले में लाकर मोदी सरकार को झटका दिया जाए। तो दूसरी बीजेपी के सामने गठबंधन साथियों के साथ तालमेल बिठाने की रोज़ की नई जद्दोजहद। इसके अलावा अब RSS भी बीजेपी से नाखुश और गुस्से में नज़र आ रही है। बीजेपी के खराब प्रदर्शन को लेकर RSS लगातार हमलावर है औऱ बीजेपी के पास उन हमलों का कोई जवाब नहीं है।
27 सितंबर 1925 के दिन डॉ. केशव हेडगेवार ने महाराष्ट्र के नागपुर में RSS यानि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शुरुआत की थी। जिसे इस साल आने वाली 27 सितंबर को पूरे 100 साल हो जाएंगे। लोकसभा चुनाव के बाद अगर पिछली दो बार की तरह बीजेपी की प्रचंड जीत होती तो RSS इसे देशभर में धूमधाम से मनाती, लेकिन बीजेपी तो इस बार बहुमत का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। पिछले दो चुनाव के बाद मोदी के नेतृत्व में हुए तीसरे चुनाव में बीजेपी का ये सबसे खराब प्रदर्शन रहा है। बस इसी बात से RSS अब बीजेपी से नाराज़ है और लगातार निशाना साध रही है। बीजेपी को अहंकारी और घमंडी बता रही है।
हाल ही में RSS प्रमुख मोहन भागवत का बयान सामने आया था जो उन्होने चुनाव नतीजे आने के बाद दिया था। भागवत कहते हैं- एक सच्चा सेवक काम करते समय मर्यादा बनाए रखता है और उसका पालन करता है। उसमें अहंकार नहीं आना चाहिए कि ये काम मैंने किया है या वो काम मैंने किया है। ऐसा न करने वाला व्यक्ति ही सच्चा सेवक कहलाता है। भागवत का ये बयान सामने आते ही मीडिया ने इसे प्रमुखता से उठाया और ये समझा की बीजेपी-आरएसएस के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि भागवत का ये बयान साफ तौर पर पीएम मोदी की तरफ इशारा करता था। भागवत के बयान को प्रधानमंत्री मोदी के लिए चेतावनी भी माना गया। इस मुद्दे ने कुछ ही घंटों में राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ा और इंडिया ब्लॉक ने भी इसे लेकर भ्रम फैलाना शुरू कर दिया। संघ और बीजेपी ने विवाद को पनपते देखा तो अपनी-अपनी तरफ से सफाइयां पेश की जाने लगीं लेकिन उनका असर कुछ नहीं हुआ।
आरएसएस से जुड़े सूत्रों ने कहा कि भागवत का इशारा पीएम मोदी की तरफ नहीं था, लेकिन वो ये भूल गए कि एक बार धनुष से छोड़ा गया बाण कभी वापस आ सकता है क्या। देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि मोहन भागवत या आरएसएस किसे अहंकारी कहना चाह रहे थे। वहीं कुछ राजनीतिक जानकारों ने इन आरएसएस के बयानों को बीजेपी पर दबाव बनाने के रूप में भी देखा। 2024 के आम चुनावों के नतीजे ओवर कॉन्फिडेंस से भरी बीजेपी और उसके कार्यकर्ताओं को आईना दिखाने वाले हैं। बीजेपी के तमाम बड़े नेता और कार्यकर्ता अपने ही बनाए बुलबुले में खुश थे। खुद मोदी जी सातवें आसमान पर थे जो ज़मीन पर आमजन की आवाज़ नहीं सुन पाए।
रतन शारदा के इस लेख ने आग में घी डालने का काम किया। ये बात फैल गई कि बीजेपी पर उसका मूल संगठन सीधा हमलावर है। लेकिन बीजेपी तब भी चुप रही। यहां तक की बीजेपी के तमाम बड़बोले प्रवक्ताओं के पास संघ से जुड़े किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं था। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी सरकार बनाने के लिए एनडीए के घटक दलों को इकट्ठा करने में व्यस्त थे। ये कोई आम बात नहीं है कि इस बार बीजेपी संसदीय दल की तरफ से नहीं बल्कि एनडीए संसदीय दल के सांसदों की तरफ से एनडीए का नेता चुना गया है।
बीजेपी को उलझन में देख एक बार फिर संघ के लोग सामने आए और विवाद को सुलझाने के लिए शारदा के लेख से किनारा कर लिया। संघ ने ऐसा करके बीजेपी को लपेटे में लेने की सोच रखने वाले संघियों को चेतावनी देने की कोशिश की। चुनाव नतीजों ने संघ को उससे कहीं ज्यादा आहत किया था, जितना उन लोगों ने जाहिर किया। नागपुर मुख्यालय पहले से ही संघ को हुए नुकसान का आंकलन कर रहा था। तीन मुद्दों ने संघ को सबसे ज्यादा उत्तेजित किया था।
पहला – जनसंख्या नीति
मोदी के दूसरे कार्यकाल में अयोध्या, धारा 370 और यूसीसी के बाद संघ को उम्मीद थी कि तीसरे कार्यकाल में वह जनसंख्या नियंत्रण मामले को संभाल लेंगे। 2022 में अपने दशहरा संबोधन में भागवत ने औपचारिक रूप से “धर्म-आधारित असंतुलन” को नियंत्रित करने के लिए ऐसे कानून की मांग की थी। उनके लिए घुसपैठ, जबरन धर्मांतरण और बढ़ती जन्मदर चिंता का विषय हैं। लेकिन सबसे बड़ी चिंता तेज़ी से बढ़ती मुसलमानों की आबादी थी। उसे उम्मीद थी कि भाजपा अपने तीसरे कार्यकाल में इस परियोजना को अपनाएगी।
दूसरा – कमज़ोर होती हिंदुत्व की पकड़
उत्तर प्रदेश में भाजपा को लगभग 70 सीटों की उम्मीद थी, लेकिन मिली सिर्फ 33. संघ की प्राथमिक चिंता ये नहीं है कि बीजेपी यूपी में इतनी सारी लोकसभा सीटें हार गई है। यूपी के जिन लोगों के बारे में संघ को लगता है कि उन्होंने दशकों से हिंदुत्व परंपरा को अपनाया है, उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के भाजपा के खिलाफ या फिर कह लें कि हिंदुत्व के खिलाफ वोट किया है। संघ का आंकलन है कि लोगों को व्यापक हिंदुत्व दर्शन को भूलकर जाति के आधार पर वोट देने में ज्यादा समय नहीं लगा। ऐसे में सवाल ये खड़ा होता है कि भविष्य में अपने अनुयायियों के बीच हिंदुत्व की भावना को खत्म होने से कैसे रोका जाए। अगर यूपी में ऐसा हो सकता है तो दूसरे राज्यों में क्या होगा जहां भाजपा ने अभी-अभी अपनी पैठ बनानी शुरू की है?
तीसरा – BJP-RSS के बीच Operational Conflict
चुनाव के बीच मई महीने में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने संघ के खिलाफ एक बयान दिया था, जिसमें उन्होने कहा था कि पहले हम छोटी पार्टी थे और तब हमें आरएसएस की ज़रूरत थी। आज हम बढ़ गए हैं। अपने आप में सक्षम हैं, तो अब बीजेपी खुद को चलाने में सक्षम है। नड्डा ने कहा कि RSS वैचारिक रूप से अपना काम करते हैं और हम राजनीतिक रूप से। नड्डा के इसी बयान के बाद सारा हंगामा खड़ा हुआ। इस पर संघ के अंदरूनी सूत्रों ने दावा किया कि 2014 के बाद से भाजपा का कद और लोकप्रियता बढ़ी है। ये एक संगठन के रूप में भी मजबूत हो गई और धन, जनशक्ति सहित संसाधनों की कोई कमी नहीं हुई। इससे उसे ये विश्वास मिला होगा कि वह 2024 के अभियान को अपने दम पर संभाल सकती है। लेकिन जनता ने उन्हे आईना दिखा दिया।
इन सबके अलावा कुछ ऐसे भी दावे हैं जो RSS की ओर से किए जा रहे हैं, उसके मुताबिक अहंकार की वजह से इस चुनाव में बीजेपी को नुकसान हुऐ है। संघ को लगता है कि टिकटों के बंटवारे से लेकर चुनाव अभियान और प्रबंधन पर उनसे सलाह लेने में बीजेपी ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ब्रांड मोदी ने राज्यों के पार्टी नेतृत्व पर हावी होकर न सिर्फ स्थानीय नेताओं को जनता से दूर किया, बल्कि संघ कार्यकर्ताओं को भी थोड़ा शांत और दूर कर दिया। ब्रांड मोदी का स्थानीय भाजपा नेतृत्व और कैडर पर हावी होना, जिससे उनमें सुस्ती आ गई। राष्ट्रीय चुनाव प्रचार में स्थानीय मुद्दों पर हावी होने के लिए भाजपा की तैयारी नहीं थी। विपक्ष ने चतुराई से दलितों को भाजपा से दूर करने का अभियान चलाया। विपक्ष ने भाजपा की रणनीति में जातिगत कमजोरियों और कमियों का फायदा उठाया। ब्रांड मोदी और ब्रांड योगी के बीच कोर्डिनेशन की कमी साफ दिखी।
इसके अलावा 10 जून को फिर से संघ के संपादकीय ऑर्गनाइज़र ने भाजपा को तीन urgent motives की पहचान करने की सलाह दी है। पहली – बीजेपी को ये आंकलन करना होगा कि क्या पार्टी या गठबंधन में कुछ दागी नेताओं के आने से पार्टी की छवि खराब हुई है। खासकर भ्रष्टाचार मुक्त राजनीतिक एजेंडे पर कोई आंच आई है। संघ को इस बात का डर है कि दल-बदलुओं का भाजपा में बढ़ता प्रभाव हिंदुत्व को कमजोर कर सकता है। दूसरी– जाति-आधारित पहचान का फिर से उभरना बेहद हैरान कर देने वाला है, जिसे पार्टी रणनीतिकारों को समझना होगा। तीसरी– भारत विरोधी ताकतें राजनीतिक दल, गैर सरकारी संगठन, मीडिया घराने और कलाकारों का इस्तेमाल करके अराजकता पैदा करने और समाज को अलग थलग बांटने की कोशिश कर रही हैं। इसलिए नई सरकार को राष्ट्रीय चिंताओं के मुद्दों पर जागरुक संगठनों के व्यापक समर्थन की ज़रूरत होगी।
वैसे ये तो तय है कि बीजेपी को इस चुनाव में बड़ा नुकसान हुआ है। अब इसकी वजह आरएसएस को दरकिनार करना है या कुछ और इस पर बहस ज़रूर की जा सकती है। लेकिन अब उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ दिनों में दोनों संगठनों के बीच एक शिखर बैठक हो सकती है। क्योंकि इसी साल के अंत में हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में दोनों संस्थाओं के बीच मतभेद दूर करने में नेतृत्व को ज्यादा समय नहीं लगाना चाहिए। वरना वो दिन दूर नहीं होगा जब बीजेपी और आरएसएस की फूट का ना सिर्फ विरोधी दल बल्कि विदेशी ताकतें भी खुलकर फायदा उठाएंगी और ये संगठन चुपचाप बैठ कर तमाशा देखते रह जाएंगे।